उपन्यास >> चार कन्या चार कन्यातसलीमा नसरीन
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यमुना, शीला, झूमुर और हीरा की कथा...
Char Kanya - A Hindi Book - by Taslima Nasrin
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘खराब होना’ किसे कहा जाता है नूपुप ? पुरुष के साथ सम्पर्क होने से स्त्रियाँ खराब हो जाती हैं ? लेकिन स्त्रियों के साथ पुरुष का किसी भी तरह का सम्पर्क पुरुष को तो खराब नहीं करता ? स्त्रियों के चरित्र और चरित्रहीनता का मामला सिर्फ शारीरिक घटनाओं से तय किया जाता है। कितना विचित्र नियम है ! है न !
नूपुर, मैं चाहती हूँ कि मैं एक पूर्ण मनुष्य के रूप में अपनी शाखा-प्रशाखा चारों ओर फैलाकर जीती रहूँ। मेरा मन होता है कि अपने ऊपर से दूसरों का अकारण जताया गया अधिकार उतारकर फेंक दूँ। मेरा मन करता है, खूब मन करता है कि अकेले जी सकूँ। इब्सन का वह कथन जानती हो न–the strongest man in the world is the man who stands most alone.
मैंने कभी लड़का होना नहीं चाहा। जब धीरे-धीरे मेरी उम्र बढ़ रही थी, शरीर क्रमशः अपरिचित होने लगा।...शरीर को लेकर, शरीर के विभिन्न लक्षणों को लेकर मैं कभी दुःखी नहीं हुई। मेरा शरीर पुरुष से भिन्न होगा ही, लेकिन इस भिन्नता के कारण मेरी सीमा क्यों बाँध दी जाएगी, क्यों मेरी स्वतंत्रता पर आँच आएगी ?
कभी आकार में कहानी बड़ी हो सकती है, जैसे विभूतिभूषण की कहानी ‘अशनि संकेत’, दूसरी ओर उपन्यास भी छोटा हो सकता है, जैसे अलबेयर कामू का ‘आउटसाइडंर’। हालाँकि चार कन्या में संगृहीत कथाओं को खुद लेखिका ने कहानी ही कहा है, उपन्यास नहीं।
चार कन्या में यमुना, शीला, झूमुर और हीरा की कथा है। यमुना एक मामूली लड़की है, उसके भीतर बूँद-बूँद कर जन्म लेती है–अपने अधिकार बोध के प्रति तीव्र जागरूकता। ऐसी सुलझी हुई जागरूक लड़कियों को काफ़ी कुछ भुगतना पड़ता है। समाज के उलटे-सीधे नियम उन्हें बहुत सताते हैं, यमुना को भी खूब सताया। शीला ठगी जाती है अपने प्रेमी द्वारा। ऐसी सैकड़ों शीलाएँ राह में चल-फिर रही हैं पर सभी तो अपनी जुबान पर वे बातें नहीं ला सकतीं क्योंकि इससे ठगने वालों पर प्रहार की बजाय शीलाओं पर ही उल्टी मार पड़ती है–समाज उन्हीं पर पत्थर फेंकता है, उनके ही मुँह पर थूरता है।
झूमुर प्रतिशोध लेती है, पर इस तरह से प्रतिशोध लेने के कारण बेशक उसका नाम ‘नारी आन्दोलन’ में स्वर्णाक्षरों से नहीं लिखा जाएगा। उसने इस समाज की पीठ पर सिर्फ़ हल्का-सा धक्का देकर कहा–‘अपमान का बदला पुरुष ही नहीं, स्त्री भी ले सकती है’। हीरा जैसी लड़की अपने अक्षम पति के पिंजड़े जैसे घर से निकल आती है। वह अपनी चाहत को किसी भी तरह पूरा करती है। सभी लड़कियाँ शायद हीरा की तरह बाधाएँ लाँघ कर बाहर नहीं आ सकतीं। लेकिन एक स्वप्न ज़रूर दिखा जाती हैं। शीला अपने भीतर ही भीतर ताक़त जुटा कर खड़ी होती है। स्त्रियों के सीने में दुःख-कष्ट के वारूद का गोया ढेर लग गया है, एक बार यदि उसमें आग लग जाए तो जलाकर वे राख कर देंगी समाज के सारे गन्दे नियमों को। लज्जा जैसी चर्चित कृति की लेखिका तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास स्त्री-विमर्श की कई खिड़कियाँ खोलता है, और जिससे आती बयार से पाठक अछूता नहीं रह सकता।
नूपुर, मैं चाहती हूँ कि मैं एक पूर्ण मनुष्य के रूप में अपनी शाखा-प्रशाखा चारों ओर फैलाकर जीती रहूँ। मेरा मन होता है कि अपने ऊपर से दूसरों का अकारण जताया गया अधिकार उतारकर फेंक दूँ। मेरा मन करता है, खूब मन करता है कि अकेले जी सकूँ। इब्सन का वह कथन जानती हो न–the strongest man in the world is the man who stands most alone.
मैंने कभी लड़का होना नहीं चाहा। जब धीरे-धीरे मेरी उम्र बढ़ रही थी, शरीर क्रमशः अपरिचित होने लगा।...शरीर को लेकर, शरीर के विभिन्न लक्षणों को लेकर मैं कभी दुःखी नहीं हुई। मेरा शरीर पुरुष से भिन्न होगा ही, लेकिन इस भिन्नता के कारण मेरी सीमा क्यों बाँध दी जाएगी, क्यों मेरी स्वतंत्रता पर आँच आएगी ?
कभी आकार में कहानी बड़ी हो सकती है, जैसे विभूतिभूषण की कहानी ‘अशनि संकेत’, दूसरी ओर उपन्यास भी छोटा हो सकता है, जैसे अलबेयर कामू का ‘आउटसाइडंर’। हालाँकि चार कन्या में संगृहीत कथाओं को खुद लेखिका ने कहानी ही कहा है, उपन्यास नहीं।
चार कन्या में यमुना, शीला, झूमुर और हीरा की कथा है। यमुना एक मामूली लड़की है, उसके भीतर बूँद-बूँद कर जन्म लेती है–अपने अधिकार बोध के प्रति तीव्र जागरूकता। ऐसी सुलझी हुई जागरूक लड़कियों को काफ़ी कुछ भुगतना पड़ता है। समाज के उलटे-सीधे नियम उन्हें बहुत सताते हैं, यमुना को भी खूब सताया। शीला ठगी जाती है अपने प्रेमी द्वारा। ऐसी सैकड़ों शीलाएँ राह में चल-फिर रही हैं पर सभी तो अपनी जुबान पर वे बातें नहीं ला सकतीं क्योंकि इससे ठगने वालों पर प्रहार की बजाय शीलाओं पर ही उल्टी मार पड़ती है–समाज उन्हीं पर पत्थर फेंकता है, उनके ही मुँह पर थूरता है।
झूमुर प्रतिशोध लेती है, पर इस तरह से प्रतिशोध लेने के कारण बेशक उसका नाम ‘नारी आन्दोलन’ में स्वर्णाक्षरों से नहीं लिखा जाएगा। उसने इस समाज की पीठ पर सिर्फ़ हल्का-सा धक्का देकर कहा–‘अपमान का बदला पुरुष ही नहीं, स्त्री भी ले सकती है’। हीरा जैसी लड़की अपने अक्षम पति के पिंजड़े जैसे घर से निकल आती है। वह अपनी चाहत को किसी भी तरह पूरा करती है। सभी लड़कियाँ शायद हीरा की तरह बाधाएँ लाँघ कर बाहर नहीं आ सकतीं। लेकिन एक स्वप्न ज़रूर दिखा जाती हैं। शीला अपने भीतर ही भीतर ताक़त जुटा कर खड़ी होती है। स्त्रियों के सीने में दुःख-कष्ट के वारूद का गोया ढेर लग गया है, एक बार यदि उसमें आग लग जाए तो जलाकर वे राख कर देंगी समाज के सारे गन्दे नियमों को। लज्जा जैसी चर्चित कृति की लेखिका तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास स्त्री-विमर्श की कई खिड़कियाँ खोलता है, और जिससे आती बयार से पाठक अछूता नहीं रह सकता।
ब्रह्मपल्ली,
मैमनसिंह
मैमनसिंह
बुबू,
तुमने तो बिलकुल चुप्पी साध ली है। तो क्या मैं मान लूँ कि तुम मर चुकी हो ! मरकर हमारा उद्धार किया है !
तुम्हारे मर जाने से क्या किसी का उद्धार हो सकता है–मैं रह-रहकर इस बारे में सोचती हूँ। यदि उद्धार होता ही है तो किसका–पिताजी का, मेरा, या फिर भैया का ? क्या पता बुबू, मेरे तो कुछ भी समझ में नहीं आता !
तुम किस माटी की बनी हो। किस पर तुम्हारा इतना मान ? मुझे भी भूल चली हो, वही मैं, मैं नूपुर–जिसके साथ तुमने तेईस वर्ष बिताए हैं, एक कमरे में, एक बिस्तर पर, अचानक यदि मैं किसी दिन दूसरे कमरे में सो जाती तो तुम्हीं सारी रात एक पल भी न सोकर सुबह आँगन में बेचैन घूमती रहती थीं, वह तुम्हीं थी न ? जो मुझे साढ़े तीन साल हो गए, भूलकर बैठी हो !
पिताजी ने तुम्हें कहीं मर-खप जाने को कहा, बस तुम मरने चली गईं। पिताजी की हमेशा की आज्ञाकारी बेटी, तुमने दो मिनट भी देर नहीं की। अगर रुक जाती तो देखती की साठ साल का बालक किस तरह फफक-फफककर रोता है। उस शख्त का सिर्फ दर्प देखा, गर्व देखा–आँसू नहीं देख सकी। उस दिन तुम्हारी जगह यदि मैं होती तो लौट आती। दुनिया की कोई ताकत मुझे रोक न पाती। तुम नहीं लौटीं, तुम ज्यादा प्रतिभाशाली हो इसलिए ! बूढ़े माँ-बाप के इस परिवार में तुम्हारा मन नहीं लगता।
अभी जरूर बड़े सुख में हो ! जिस सुख के लिए सारे बन्धन तोड़कर एक झटके से निकल गई बुद्धिमती लड़की।
तुमने तो बिलकुल चुप्पी साध ली है। तो क्या मैं मान लूँ कि तुम मर चुकी हो ! मरकर हमारा उद्धार किया है !
तुम्हारे मर जाने से क्या किसी का उद्धार हो सकता है–मैं रह-रहकर इस बारे में सोचती हूँ। यदि उद्धार होता ही है तो किसका–पिताजी का, मेरा, या फिर भैया का ? क्या पता बुबू, मेरे तो कुछ भी समझ में नहीं आता !
तुम किस माटी की बनी हो। किस पर तुम्हारा इतना मान ? मुझे भी भूल चली हो, वही मैं, मैं नूपुर–जिसके साथ तुमने तेईस वर्ष बिताए हैं, एक कमरे में, एक बिस्तर पर, अचानक यदि मैं किसी दिन दूसरे कमरे में सो जाती तो तुम्हीं सारी रात एक पल भी न सोकर सुबह आँगन में बेचैन घूमती रहती थीं, वह तुम्हीं थी न ? जो मुझे साढ़े तीन साल हो गए, भूलकर बैठी हो !
पिताजी ने तुम्हें कहीं मर-खप जाने को कहा, बस तुम मरने चली गईं। पिताजी की हमेशा की आज्ञाकारी बेटी, तुमने दो मिनट भी देर नहीं की। अगर रुक जाती तो देखती की साठ साल का बालक किस तरह फफक-फफककर रोता है। उस शख्त का सिर्फ दर्प देखा, गर्व देखा–आँसू नहीं देख सकी। उस दिन तुम्हारी जगह यदि मैं होती तो लौट आती। दुनिया की कोई ताकत मुझे रोक न पाती। तुम नहीं लौटीं, तुम ज्यादा प्रतिभाशाली हो इसलिए ! बूढ़े माँ-बाप के इस परिवार में तुम्हारा मन नहीं लगता।
अभी जरूर बड़े सुख में हो ! जिस सुख के लिए सारे बन्धन तोड़कर एक झटके से निकल गई बुद्धिमती लड़की।
–तुम्हारी
नूपुर
नूपुर
शान्तिबाग,
ढाका
ढाका
नूपुर,
तू इतने गुस्से में क्यों है। तुम्हीं लोगों के लिए तो जगह छोड़ आई। तू, तेरे भैया अब हाथ-पाँव फैलाकर मजे से बैठ सकोगे, सो सकोगे। दुनिया में खड़े होने-भर जमीन को लेकर ही जब इतनी छीनाझपटी है, वहाँ तो उतना बड़ा मैदान, उतना बड़ा आँगन, मुगलिया अन्दाज का मकान, लम्बी-चौड़ी छत, आम-जामुन-कटहल-अमरूद का विशाल बगीचा है–जब जैसी मर्जी हो, खेलते-कूदते-टहलते-घूमते बाकी जिन्दगी गुजार देना तुम और तुम्हारे भैया।
मेरा कुछ नहीं हुआ तो नहीं हुआ। नहीं जा सकी उस पार।
तू इतने गुस्से में क्यों है। तुम्हीं लोगों के लिए तो जगह छोड़ आई। तू, तेरे भैया अब हाथ-पाँव फैलाकर मजे से बैठ सकोगे, सो सकोगे। दुनिया में खड़े होने-भर जमीन को लेकर ही जब इतनी छीनाझपटी है, वहाँ तो उतना बड़ा मैदान, उतना बड़ा आँगन, मुगलिया अन्दाज का मकान, लम्बी-चौड़ी छत, आम-जामुन-कटहल-अमरूद का विशाल बगीचा है–जब जैसी मर्जी हो, खेलते-कूदते-टहलते-घूमते बाकी जिन्दगी गुजार देना तुम और तुम्हारे भैया।
मेरा कुछ नहीं हुआ तो नहीं हुआ। नहीं जा सकी उस पार।
–यमुना
नूपुर,
कोपरनिकस के नाम पर इस दिल्ली में सड़क है, कितनी खुशी होती है न, नूपुर ? कोपरनिकस, गैलिलियो, ब्रुनो, जगदीश चन्द्र बसु, लेनिन, न्यूटन, आर्केमिडीज, आइनस्टीन, रवीन्द्रनाथ के नाम पर हमारे देश में भी सड़के क्यों नहीं होतीं, भवन नहीं होता, बाग नहीं होता, म्यूजियम या गैलरी नहीं होती ? अचानक यहाँ पर रवीन्द्रनाथ का नाम कुछ बेमेल-सा प्रतीत होता है क्या ? रवीन्द्रनाथ भला कहीं भी बेमेल प्रतीत हैं नूपुर ? जीवन या जगत में, कहीं भी ? तुम कम-से-कम ऐसा नहीं मानोगी, जानती हूँ।
दो दिन आगरा में थी। लेकिन ताजमहल को दूर से इतना अधिक जानती हूँ कि पास जाकर उसके कीमती पत्थर, उसकी वास्तुकला, सौन्दर्य मुझे नए सिरे से विमुग्ध नहीं कर सके। आगरा शहर बड़ा ही सुनसान है। लड़कियाँ साइकिल से चलती-फिरती हैं, उनको देखकर तू बहुत याद आ रही थी। बचपन में साइकिल से तू सारे शहर का चक्कर लगाती फिरती थी। जैसे ही बड़ी हुई, सब बन्द हो गया। लड़कियाँ जैसे-जैसे बड़ी होती जाती हैं, एक-एक कर तिलचट्टा होती जाती हैं ?
कोपरनिकस के नाम पर इस दिल्ली में सड़क है, कितनी खुशी होती है न, नूपुर ? कोपरनिकस, गैलिलियो, ब्रुनो, जगदीश चन्द्र बसु, लेनिन, न्यूटन, आर्केमिडीज, आइनस्टीन, रवीन्द्रनाथ के नाम पर हमारे देश में भी सड़के क्यों नहीं होतीं, भवन नहीं होता, बाग नहीं होता, म्यूजियम या गैलरी नहीं होती ? अचानक यहाँ पर रवीन्द्रनाथ का नाम कुछ बेमेल-सा प्रतीत होता है क्या ? रवीन्द्रनाथ भला कहीं भी बेमेल प्रतीत हैं नूपुर ? जीवन या जगत में, कहीं भी ? तुम कम-से-कम ऐसा नहीं मानोगी, जानती हूँ।
दो दिन आगरा में थी। लेकिन ताजमहल को दूर से इतना अधिक जानती हूँ कि पास जाकर उसके कीमती पत्थर, उसकी वास्तुकला, सौन्दर्य मुझे नए सिरे से विमुग्ध नहीं कर सके। आगरा शहर बड़ा ही सुनसान है। लड़कियाँ साइकिल से चलती-फिरती हैं, उनको देखकर तू बहुत याद आ रही थी। बचपन में साइकिल से तू सारे शहर का चक्कर लगाती फिरती थी। जैसे ही बड़ी हुई, सब बन्द हो गया। लड़कियाँ जैसे-जैसे बड़ी होती जाती हैं, एक-एक कर तिलचट्टा होती जाती हैं ?
–यमुना
श्रीनगर
कश्मीर
कश्मीर
नूपुर,
खुद को बड़ा अपराधी महसूस कर रही हूँ, नूपुर। मैं एक स्वर्ग में बैठी हूँ, और तू मेरी ही बहन होकर, मेरी सबसे अजीज होकर–एक पिछड़े शहर की उतनी ही पिछड़ी ब्रह्मपल्ली के एक मकान में उदास बैठी दिन बिता रही हो। झेलम एक्सप्रेस ने हमें जम्मू स्टेशन पर उतार दिया। साथ में एक महीने का ‘इंड-रेल पास’ था। इस पास से भारत के किसी भी स्टेशन से किसी भी गाड़ी के वातानुकूलित डिब्बे में बैठकर पूरे एक महीने तक घूमा जा सकता है। कलकत्ता छोड़ने के बाद ही मेरे साथ भाषा की समस्या शुरू हो गई। बड़ा आत्मविश्वास था कि हिन्दी बोल लूँगी। लेकिन बोलते समय बांग्ला-हिन्दी-उर्दू को मिलाकर एक खिचड़ी हो जाती थी। अन्ततः अंग्रेजी से काम चलाना पड़ता है।
किसी नए शहर में जाने पर मैं उस शहर की शाम और रात देखती हूँ। एक्का पर सवार होकर जम्मू देखा। तुमको शायद गुस्सा आएगा या खुशी भी हो सकती है कि दूसरे दिन सुबह जब श्रीनगर के रास्ते से होकर हमारी बस गुजर रही थी तो मैं खिड़की के पास बैठी दोहरी नजर से बर्फ की चोटियाँ देख रही थी–एक बार अपनी आँखों से तो एक बार तुम्हारी आँखों में। बस में उस वक्त अचानक सारे लोग हैरान होकर मुझे देखने लगे, जब मैं तुम्हारा दोपहरवाला वह गीत गाने लगी–‘‘ओ लो सई, आमार इच्छा करे तोदेर मतो मनेर कथा कोई !’’ (हे सखी, मेरी भी इच्छा होती है तुम्हारी तरह मन की बातें कहूँ !) उस वक्त मैं तुम्हारी हो गई थी, ठीक तुम्हारी तरह अपनी दाहिनी जाँघ पर हाथ से थाप दे रही थी और मन-ही-मन सारी खुशी तुम्हें दे रही थी।
श्रीनगर में उतरकर ‘डल’ झील पर एक खूबसूरत हाउसबोट भाड़े पर लिया। हमारी खातिरदारी का जिम्मा मैमुन पर था। मैमुन को देखोगी तो तुम जरूर उसे छूकर देखना चाहोगी कि उसके गालों का गुलाबी रंग उँगलियों पर उतरकर आता है या नहीं। उतरेगा नहीं, वह उनका ओरिजिनल रंग है। सेब की तरह लाल गालोंवाली ‘लड़की हिन्दी और अंग्रेजी मिलाकर खूब बोलती रहती है, हमें चाय पिलाई, सोने के कमरे के चूल्हे में दोनों हाथों से भरकर लकड़ियाँ ठूँस दीं। गरम पानी से नहाने के बाद पूरी शाम शिकार से मैंडल लेक में घूमती रही। ‘शिकारा’ एक तरह की मयूरपंछी नाव का नाम है। उसमें मखमल की चादर बिछी हुई, जैसी इच्छा सोकर या बैठकर रह सकते हैं। हमारे साथ के लड़के का नाम हुमायूँ है। यह मत सोचना कि मैं शौकिया हनीमून पर आई हूँ। दरअसल, मैं इसलिए आ गई हूँ क्योंकि मेरे खाते में काफी पैसे जमा हो गए थे। तुम्हें याद है, माँ कहती थी, पैसा मुझे काटने लगता है ? वही पैसा दरअसल मुझे बहुत काट रहा था, इसलिए उसे खर्च करने के लिए यहाँ तक आ गई।
इसके पहले जितनी बार देश से बाहर निकली हूँ, हड़बड़ाकर काम खत्म करके लौट गई। एक बार पेरिस ल्यूमर म्यूजियम के दरवाजे से वापस आ गई थी–नहीं, अकेले नहीं, नूसुर को साथ लाकर देखूँगी। और अब देखो, अकेले-अकेले बड़े मजे से गुलमर्ग, खिलनमर्ग, पहलगाँव, शालीमार देख रही हूँ। गुलमर्ग में स्कइंगि करते हुए मैं करीब पच्चीस किलोमीटर दूर बर्फ के एक अन्य शहर में पहुँच गई थी। मेरा कश्मीर का मजा इतना ही है कि बर्फ की बारिश हो रही है, मेरे सिर पर पश्मीना की टोपी है और बदन पर मोटा ओवरकोट। कोई साथ नहीं, अकेली। पता नहीं क्यों, बहुत रुलाई आ रही थी। हुमायूँ तो हाउसबोट से लगभग निकला दी नहीं। उसका सिर बहुत दुख रहा था, सिर-दर्द कम होने की सारी दवाइयाँ दे चुकी। लेकिन वह ठीक होने का नाम ही नहीं लेता था। बगल में ही बैठी हुई थी, उसने लगभग जबरदस्ती करते हुए मुझे गुलमर्ग भेज दिया।
याद है, मुझसे गर्मी बिलकुल सहन नहीं होती थी इसलिए तुम मुझसे कहती थीं, नेपच्यून पर चली जा ! नेपच्यून ! वहाँ का तापमान हिमांक से 2370सेल्सियस नीचे है। आज गुलमर्ग में स्कीट्र करते हुए निर्जन बियावान में, कहीं कोई घर-बस्ती नहीं, आसमान की सफेदी और बर्फ की सफेदी जहाँ एकाकार है, ऐसी अद्भुत अनजानी जगह के धवल जीवन में पहुँच गई जहाँ अचानक लगा–मैं कहीं नेपच्यून पर ही तो नहीं पहुँच गई। कितनी हैरानी की बात है, देखो ! चारों ओर देखते-देखते मैं बर्फ पर अपने शरीर को निढाल करके बैठ गई, बैठ गई समूचे अवसाद और खुशी के साथ। अवसाद शरीर में और खुशी मन में थी। और ऐसे में यदि दिल को चीरती हुई रुलाई आती है तो तुम्हीं बताओ, कितना खराब लगता है न ?
दुनिया में भला कौन है मेरा जिसके लिए रोना आएगा ? तुम्हारे लिए ? तुम्हें सिर की बीमारी है, कश्मीर घूम नहीं पा रही हो–इसलिए ? या फिर खुद के लिए ही ? मतलबी लड़की, खुद के लिए नहीं तो और किसके लिए रोएगी ? हुमायूँ को कोई असुविधा नहीं हुई। मैमुन ने सुबह उसे चाय दे दी। दोपहर को ‘गुस्तबा’ बनाया था उसने, गुस्तबा एक तरह का कश्मीरी खाना है। शाम को सिर का दर्द थोड़ा कम होने पर मैमुन उसे टहलाने के लिए नेहरू पार्क ले गई थी।
मैमुन इतनी सुन्दर लड़की है, उम्र कोई बीस-बाईस साल होगी, उससे कितनी बार कहा है कि चलो तुम्हें मैं अपने देश ले चलती हूँ। हुमायूँ कहता है, देश ले जाकर तुम्हें काँच के एक जार में सजाकर रखूँगा, चलो ! मैमुन सिर्फ हँसती है। पैसे खत्म हो गए। कल समय बर्बाद किए बिना सीधे दिल्ली। फिर दिल्ली से ढाका।
खुद को बड़ा अपराधी महसूस कर रही हूँ, नूपुर। मैं एक स्वर्ग में बैठी हूँ, और तू मेरी ही बहन होकर, मेरी सबसे अजीज होकर–एक पिछड़े शहर की उतनी ही पिछड़ी ब्रह्मपल्ली के एक मकान में उदास बैठी दिन बिता रही हो। झेलम एक्सप्रेस ने हमें जम्मू स्टेशन पर उतार दिया। साथ में एक महीने का ‘इंड-रेल पास’ था। इस पास से भारत के किसी भी स्टेशन से किसी भी गाड़ी के वातानुकूलित डिब्बे में बैठकर पूरे एक महीने तक घूमा जा सकता है। कलकत्ता छोड़ने के बाद ही मेरे साथ भाषा की समस्या शुरू हो गई। बड़ा आत्मविश्वास था कि हिन्दी बोल लूँगी। लेकिन बोलते समय बांग्ला-हिन्दी-उर्दू को मिलाकर एक खिचड़ी हो जाती थी। अन्ततः अंग्रेजी से काम चलाना पड़ता है।
किसी नए शहर में जाने पर मैं उस शहर की शाम और रात देखती हूँ। एक्का पर सवार होकर जम्मू देखा। तुमको शायद गुस्सा आएगा या खुशी भी हो सकती है कि दूसरे दिन सुबह जब श्रीनगर के रास्ते से होकर हमारी बस गुजर रही थी तो मैं खिड़की के पास बैठी दोहरी नजर से बर्फ की चोटियाँ देख रही थी–एक बार अपनी आँखों से तो एक बार तुम्हारी आँखों में। बस में उस वक्त अचानक सारे लोग हैरान होकर मुझे देखने लगे, जब मैं तुम्हारा दोपहरवाला वह गीत गाने लगी–‘‘ओ लो सई, आमार इच्छा करे तोदेर मतो मनेर कथा कोई !’’ (हे सखी, मेरी भी इच्छा होती है तुम्हारी तरह मन की बातें कहूँ !) उस वक्त मैं तुम्हारी हो गई थी, ठीक तुम्हारी तरह अपनी दाहिनी जाँघ पर हाथ से थाप दे रही थी और मन-ही-मन सारी खुशी तुम्हें दे रही थी।
श्रीनगर में उतरकर ‘डल’ झील पर एक खूबसूरत हाउसबोट भाड़े पर लिया। हमारी खातिरदारी का जिम्मा मैमुन पर था। मैमुन को देखोगी तो तुम जरूर उसे छूकर देखना चाहोगी कि उसके गालों का गुलाबी रंग उँगलियों पर उतरकर आता है या नहीं। उतरेगा नहीं, वह उनका ओरिजिनल रंग है। सेब की तरह लाल गालोंवाली ‘लड़की हिन्दी और अंग्रेजी मिलाकर खूब बोलती रहती है, हमें चाय पिलाई, सोने के कमरे के चूल्हे में दोनों हाथों से भरकर लकड़ियाँ ठूँस दीं। गरम पानी से नहाने के बाद पूरी शाम शिकार से मैंडल लेक में घूमती रही। ‘शिकारा’ एक तरह की मयूरपंछी नाव का नाम है। उसमें मखमल की चादर बिछी हुई, जैसी इच्छा सोकर या बैठकर रह सकते हैं। हमारे साथ के लड़के का नाम हुमायूँ है। यह मत सोचना कि मैं शौकिया हनीमून पर आई हूँ। दरअसल, मैं इसलिए आ गई हूँ क्योंकि मेरे खाते में काफी पैसे जमा हो गए थे। तुम्हें याद है, माँ कहती थी, पैसा मुझे काटने लगता है ? वही पैसा दरअसल मुझे बहुत काट रहा था, इसलिए उसे खर्च करने के लिए यहाँ तक आ गई।
इसके पहले जितनी बार देश से बाहर निकली हूँ, हड़बड़ाकर काम खत्म करके लौट गई। एक बार पेरिस ल्यूमर म्यूजियम के दरवाजे से वापस आ गई थी–नहीं, अकेले नहीं, नूसुर को साथ लाकर देखूँगी। और अब देखो, अकेले-अकेले बड़े मजे से गुलमर्ग, खिलनमर्ग, पहलगाँव, शालीमार देख रही हूँ। गुलमर्ग में स्कइंगि करते हुए मैं करीब पच्चीस किलोमीटर दूर बर्फ के एक अन्य शहर में पहुँच गई थी। मेरा कश्मीर का मजा इतना ही है कि बर्फ की बारिश हो रही है, मेरे सिर पर पश्मीना की टोपी है और बदन पर मोटा ओवरकोट। कोई साथ नहीं, अकेली। पता नहीं क्यों, बहुत रुलाई आ रही थी। हुमायूँ तो हाउसबोट से लगभग निकला दी नहीं। उसका सिर बहुत दुख रहा था, सिर-दर्द कम होने की सारी दवाइयाँ दे चुकी। लेकिन वह ठीक होने का नाम ही नहीं लेता था। बगल में ही बैठी हुई थी, उसने लगभग जबरदस्ती करते हुए मुझे गुलमर्ग भेज दिया।
याद है, मुझसे गर्मी बिलकुल सहन नहीं होती थी इसलिए तुम मुझसे कहती थीं, नेपच्यून पर चली जा ! नेपच्यून ! वहाँ का तापमान हिमांक से 2370सेल्सियस नीचे है। आज गुलमर्ग में स्कीट्र करते हुए निर्जन बियावान में, कहीं कोई घर-बस्ती नहीं, आसमान की सफेदी और बर्फ की सफेदी जहाँ एकाकार है, ऐसी अद्भुत अनजानी जगह के धवल जीवन में पहुँच गई जहाँ अचानक लगा–मैं कहीं नेपच्यून पर ही तो नहीं पहुँच गई। कितनी हैरानी की बात है, देखो ! चारों ओर देखते-देखते मैं बर्फ पर अपने शरीर को निढाल करके बैठ गई, बैठ गई समूचे अवसाद और खुशी के साथ। अवसाद शरीर में और खुशी मन में थी। और ऐसे में यदि दिल को चीरती हुई रुलाई आती है तो तुम्हीं बताओ, कितना खराब लगता है न ?
दुनिया में भला कौन है मेरा जिसके लिए रोना आएगा ? तुम्हारे लिए ? तुम्हें सिर की बीमारी है, कश्मीर घूम नहीं पा रही हो–इसलिए ? या फिर खुद के लिए ही ? मतलबी लड़की, खुद के लिए नहीं तो और किसके लिए रोएगी ? हुमायूँ को कोई असुविधा नहीं हुई। मैमुन ने सुबह उसे चाय दे दी। दोपहर को ‘गुस्तबा’ बनाया था उसने, गुस्तबा एक तरह का कश्मीरी खाना है। शाम को सिर का दर्द थोड़ा कम होने पर मैमुन उसे टहलाने के लिए नेहरू पार्क ले गई थी।
मैमुन इतनी सुन्दर लड़की है, उम्र कोई बीस-बाईस साल होगी, उससे कितनी बार कहा है कि चलो तुम्हें मैं अपने देश ले चलती हूँ। हुमायूँ कहता है, देश ले जाकर तुम्हें काँच के एक जार में सजाकर रखूँगा, चलो ! मैमुन सिर्फ हँसती है। पैसे खत्म हो गए। कल समय बर्बाद किए बिना सीधे दिल्ली। फिर दिल्ली से ढाका।
–बुबू
ब्रह्मपल्ली,
मैमनसिंह
मैमनसिंह
बुबू,
अच्छा, उस शख्स का नाम यानी हुमायूँ है ! और उससे तुमने शादी की है ! इतने दिनों तक मैंने लोगों की बातों पर विश्वास नहीं किया ! तो तुम हुमायूँ के साथ घूम रही हो, यह अच्छी बात है। लेकिन उसके नशे-पेशे आदि के बारे में थोड़ा आभास तो दे सकती थीं ताकि मुझे समझने में सुविधा होती कि मेरी प्रिय बहन किसे दवा खिला रही है, उसके सिर-दर्द का रूप क्या है, सिर-दर्द का मकसद क्या है ?
नाराज मत होना ! तुमसे थोड़ा टेढ़ा नहीं बोलने से मन नहीं भरता। सीधी बात तो सभी करते हैं, जैसे तुम्हीं करती हो। जीवन-भर पेचीदा लोगों से सीधी-सादी बातें करती आई, ठगी भी गई हो उतना ही। लेकिन मैं वैसा नहीं कर सकती। मैं तो सीधे के साथ सीधा और टेढ़े के साथ टेढ़ी हूँ। मेरे लिए दुखी मत होना। कभी देश के बाहर नहीं गई, इसके लिए मैं खुद को कभी वंचित नहीं समझती। मेरी तरह कितने ही लोग होंगे, जो कहीं नहीं गए। इससे क्या ! मैं तो खाते-पीते, हँसते-खेलते जिन्दा हूँ, मेरी तरह और भी कितने लोग हैं।
तुम जो आज पेरिस, कल अमस्टरडम, परसों इटली कर रही हो–क्या सचमुच तुम बहुत सुखी हो बुबू ! बहुत सुख में ? मुझसे भी ज्यादा सुख में ? मुझे तो नहीं लगता !
मैं तुम्हारे दुखों का अनुभव करती हूँ। तुम न श्रीनगर, न पेरसि, न ज्यूरिख, न रोम में–मैं बहुत अच्छी तरह समझती हूँ कि ब्रह्मपल्ली की इस पुरानी चौकी पर मुझे अपनी छाती से लगाकर जब साधारण-से मकड़े या पालतू बिल्ली की कहानी सुनाती हो, उस समय तुम सबसे ज्यादा सुख का अनुभव करती हो।
इस हुमायूँ को मैं नहीं जानती। जानने की मेरी इच्छा भी नहीं है।
अच्छा, उस शख्स का नाम यानी हुमायूँ है ! और उससे तुमने शादी की है ! इतने दिनों तक मैंने लोगों की बातों पर विश्वास नहीं किया ! तो तुम हुमायूँ के साथ घूम रही हो, यह अच्छी बात है। लेकिन उसके नशे-पेशे आदि के बारे में थोड़ा आभास तो दे सकती थीं ताकि मुझे समझने में सुविधा होती कि मेरी प्रिय बहन किसे दवा खिला रही है, उसके सिर-दर्द का रूप क्या है, सिर-दर्द का मकसद क्या है ?
नाराज मत होना ! तुमसे थोड़ा टेढ़ा नहीं बोलने से मन नहीं भरता। सीधी बात तो सभी करते हैं, जैसे तुम्हीं करती हो। जीवन-भर पेचीदा लोगों से सीधी-सादी बातें करती आई, ठगी भी गई हो उतना ही। लेकिन मैं वैसा नहीं कर सकती। मैं तो सीधे के साथ सीधा और टेढ़े के साथ टेढ़ी हूँ। मेरे लिए दुखी मत होना। कभी देश के बाहर नहीं गई, इसके लिए मैं खुद को कभी वंचित नहीं समझती। मेरी तरह कितने ही लोग होंगे, जो कहीं नहीं गए। इससे क्या ! मैं तो खाते-पीते, हँसते-खेलते जिन्दा हूँ, मेरी तरह और भी कितने लोग हैं।
तुम जो आज पेरिस, कल अमस्टरडम, परसों इटली कर रही हो–क्या सचमुच तुम बहुत सुखी हो बुबू ! बहुत सुख में ? मुझसे भी ज्यादा सुख में ? मुझे तो नहीं लगता !
मैं तुम्हारे दुखों का अनुभव करती हूँ। तुम न श्रीनगर, न पेरसि, न ज्यूरिख, न रोम में–मैं बहुत अच्छी तरह समझती हूँ कि ब्रह्मपल्ली की इस पुरानी चौकी पर मुझे अपनी छाती से लगाकर जब साधारण-से मकड़े या पालतू बिल्ली की कहानी सुनाती हो, उस समय तुम सबसे ज्यादा सुख का अनुभव करती हो।
इस हुमायूँ को मैं नहीं जानती। जानने की मेरी इच्छा भी नहीं है।
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